रिपोर्ट/मुकेश बछेती
पाबौ//जनपद पौड़ी समेत कई पहाड़ी क्षेत्रों में पहले संकट चौथ का व्रत पारंपरिक रूप से मनाया जाता था, जो एक अलग धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। इस व्रत को संकटों से मुक्ति और पारिवारिक समृद्धि के लिए किया जाता था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बाजारवाद और मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण, इन क्षेत्रों में भी करवाचौथ का चलन बढ़ गया है। इस प्रवृत्ति में स्थानीय परंपराओं को दरकिनार कर शहरी और बॉलीवुड-प्रेरित त्यौहारों को अपनाने का रुझान दिखाई दे रहा है।
- स्थानीय परंपराओं की अनदेखी:
पहाड़ी क्षेत्रों में संकट चौथ का व्रत पहले से ही एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान था, जो महिलाओं द्वारा संकटों से मुक्ति के लिए रखा जाता था। लेकिन अब, करवाचौथ की बढ़ती लोकप्रियता के कारण, स्थानीय परंपराएं धीरे-धीरे कमजोर हो रही हैं। यह एक प्रकार से स्थानीय सांस्कृतिक धरोहर की अनदेखी है।
- बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव:
बाजारवाद के चलते करवाचौथ का त्यौहार एक बड़े उपभोक्तावादी उत्सव में बदल चुका है। महंगे वस्त्र, आभूषण, सजावटी सामान, और सौंदर्य प्रसाधन करवाचौथ के साथ जोड़ दिए गए हैं, जिससे इस त्यौहार की सादगी और मूल भावना कहीं खोती जा रही है। यह प्रभाव पहाड़ी क्षेत्रों तक भी पहुंच गया है, जहां अब महिलाएं भी इसी तरह के दिखावे और उपभोक्तावादी गतिविधियों में संलग्न होती दिख रही हैं।
- मीडिया और सोशल मीडिया का दबाव:
टीवी शो, फिल्में और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म करवाचौथ को एक रोमांटिक और ग्लैमरस उत्सव के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो महिलाओं के बीच आकर्षण पैदा करता है। इस प्रचार के चलते पारंपरिक व्रत जैसे संकट चौथ की तुलना में करवाचौथ को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है।
- सांस्कृतिक बदलाव:
इस प्रकार के सांस्कृतिक बदलाव कहीं न कहीं आधुनिकता और परंपराओं के बीच की खाई को उजागर करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब शहरी संस्कृति और बाजारवाद का असर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जिससे स्थानीय पहचान और परंपराएं कमजोर पड़ती जा रही हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में करवाचौथ को अपनाने और संकट चौथ जैसी परंपराओं को भूलना कहीं न कहीं बाजारवाद और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का परिणाम है। यह महत्वपूर्ण है कि लोग अपने पारंपरिक त्योहारों और सांस्कृतिक धरोहरों को बनाए रखें और बाजारवाद के अतिरेक से दूर रहें।